Call for Paper: Last Date of Paper Submission by 29th of every month


Call for Paper: Last Date of Paper Submission by 29th of every month


पण्हवागरणाइंसुत्त (प्रश्नव्याकरण सूत्र) के दार्शनिक अध्ययन के अन्तर्गत अपरिग्रह

प्रियंका कुमारी, शोध छात्रा, स्नातकोत्तर प्राकृत एवं जैनशास्त्र विभाग, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार. डॉ0 दुधनाथ चौधरी, शोध निर्देशक एवं अध्यक्ष, स्नातकोत्तर प्राकृत एवं जैनशास्त्र विभाग, वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार.   DOI: 10.70650/rvimj.2025v2i6004   DOI URL: https://doi.org/10.70650/rvimj.2025v2i6004
Published Date: 03-06-2025 Issue: Vol. 2 No. 6 (2025): June 2025 Published Paper PDF: Download E-Certificate: Download

आरंभिक अनुच्छेद: अपरिग्रह हमें जीवनमुक्त होने का सन्देश देता है। जीवन के लिए संग्रह या अर्थार्जन परिग्रह नहीं, अपितु उसपर स्वामित्व का भाव परिग्रह है। जनसमुदाय परिग्रह नहीं, अपितु जनसमुदाय में पनपनेवाला साम्प्रदायिक भावना परिग्रह है। विचारों का वैविध्य और बाहुल्य परिग्रह नहीं, अपितु अपने विचरों के प्रति हठाग्रह ही परिग्रह है। सच पूछिए तो, परिग्रह और अपरिग्रह जीवन और समाज के प्रति एक दृष्टिकोण है। जीवन और संसार के प्रति आसक्ति परिग्रह है, तो अनासक्ति अपरिग्रह। जब हम एक ओर संसार के पौद्गलिक तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाले विनाशी पदार्थों, यहाँ तक कि शरीर पर विचार करते हैं और दूसरी ओर इससे भिन्न चेतन तत्त्व पर, जो अविनाशी, नित्य और स्वाधीन है, चिन्तन करते हैं, तब क्रमशः परिग्रह-भाव से विमुक्ति होती जाती है और अन्तर्मन में अपरिग्रह-भाव विकसित होता जाता है। परन्तु, यह विकास-भाव या इस दृष्टि का विकास आत्मप्रशिक्षण और आत्मपर्यवेक्षण से ही सम्भव है, जो श्रुतज्ञान और आत्मचिन्तन की तीव्रता में उपलब्ध हो सकता है। जिसके हृदय में अपरिग्रह-भाव का विकास हो जाता है, वह जीवनमुक्त हो जाता है। जीवन्मुक्त व्यक्ति का शरीर भोग के लिए नहीं होता, वरन् यह दूसरों की सेवा में उपयोग करने के लिए होता है। अपरिग्रह सिर्फ अर्थ-स्वामित्व के परित्याग का आदेश नहीं देता, वरन् शरीर-मोह के त्याग का भी निर्देश करता है। अर्थ के साथ ही शरीर भी संसार की सेवा के लिए है, ऐसा समझकर इसे मानव-कल्याण में निष्काम भाव से समर्पित कर देना चाहिए।


Call: 9458504123 Email: editor@researchvidyapith.com