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अम्बेडकर का आर्थिक चिन्तनः सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में

रोहित, गेस्ट फैकल्टी, श्यामा प्रसाद मुख़र्जी कॉलेज, यूनिवर्सिटी ऑफ़ दिल्ली.   DOI: 10.70650/rvimj.2024v1i5007   DOI URL: https://doi.org/10.70650/rvimj.2024v1i5007
Published Date: 09-12-2024 Issue: Vol. 1 No. 5 (2024): December 2024 Published Paper PDF: Download E-Certificate: Download

आरंभिक अनुच्छेद- भारतीय समाज व राजनीति में लम्बे समय से असमानता मुख्य रूप से विद्यमान रही है। प्राचीन काल में शासन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था, जहा राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक कारक के रूप में जाति मौजूद न हो। यह वर्तमान में भी परिलक्षित है, जबकि भारत में लोकतांत्रिक संविधान को लागू हुए 76 वर्षों से अधिक समय हो गया है। इस देश के लोगों के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जाति कारक हावी हैं। एक ही धर्म व समुदाय के अन्तर्गत अनके जातिया प्रभावी है। भारत में हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के कारण सामाजिक रूप से श्रेणीबद्ध, आर्थिक रूप से दरिद्र, राजनीतिक रूप से दबे हुए, धार्मिक रूप से बहिष्कृत तथा अनिश्चित काल तक शैक्षिक तथा सांस्कृतिक अवसरों से वंचित रहने वालों को दास बनाकर दंड़ित कर सभी मानवाधिकारों से वंचित रखा जाता था। इन्हें अछूत समुदाय कहा जाता है, जो श्रेणीबद्ध विषमता एवं अन्याय पर आधारित व्यवस्था के शिकार थे। ऐसी ही व्यवस्था एवं सामाजिक अन्याय के विरूद्ध डॉ0 अम्बेडकर दृढ़ता से आवाज उठाई। स्वतंत्रता से पहले के भारत अैर संविधान सभा दोनों में ही सामाजिक न्याय के लिए उनके संघर्ष को याद किया जाता है। साथ ही आज के समय में उसकी बरकरार प्रासंगिता पर चिंतन करना हमेशा से ही एक लाभदायक एवं संतोषजनक अभ्यास है। डॉ. अम्बेडकर का उद्देश्य सामाजिक न्याय एवं एक न्यायसंगत समाज की स्थापना करना था, जो आवश्यक रूप से एक जातिरहित समाज था। उन्होंने मौजूदा सामाजिक व्यवस्था की न केवल क्रूर आलोचना की बल्कि जाति के न्याय, स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा और विनाश पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की वैकल्पिक दृष्टि और वैकल्पिक मॉडल लेकर आये।


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