भारत में महिला अस्मिता का संघर्ष- एक समाजशास्त्रीय विष्लेषण


Published Date: 04-12-2024 Issue: Vol. 1 No. 5 (2024): December 2024 Published Paper PDF: Download E-Certificate: Download
सारांशः लैंगिक पहचान का संकट आज के समाज में नवीन विषय नहीं है। यह व्यक्तियों को अपनी वास्तविक स्थिति से अलग पहचान के रूप में सामने आने का कारण बनता जा रहा है। जेंडर का तात्पर्य, महिलाओं एवं पुरुषों की सामाजिक रूप से निर्मित विशेषताओं जैसे, मानदंड, भूमिकाएं तथा महिलाओं एवं पुरुषों के समूहों के बीच संबंध से है। यह एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न होता है, तथा इसे बदला भी जा सकता है। कुछ समाज परंपरा और संस्कृति के आधार पर स्त्रियों तथा पुरुषों को अलग-अलग भूमिका निर्वहन के लिए तैयार करते हैं, जैसे सीमोन द बोऊआर की पुस्तक सेकंड सेक्स का बहुचर्चित वाक्य, ’’स्त्री जन्म नहीं लेती, बल्कि बनाई जाती है’’ यहां उदाहरण के रूप में द्रष्टव्य है। शिशु के जन्म लेने पर भौतिक/जैविक रूप से लड़का, लड़की होने पर समाज जेंडर के रूप में उसको तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कोलिंस का मानना है कि ’’जनसंचार माध्यम में महिलाओं को जेंडर आधारित भूमिका में दिखाया जाता है, तथा यह समाज के लिए जेंडर रूढ़िवादिता को पुनरूत्पादन करता है। उदाहरण के लिए, महिलाएं सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में है या घर की रखवाली जैसी पारंपरिक घरेलू भूमिका निभा रही हैं। विभिन्न सामाजिक परिवर्तनों की प्रक्रिया के कारण आर्थिक सामाजिक प्रणालियों में संरचनात्मक परिवर्तनों से प्रभावित होकर महिलाओं ने घर से बाहर निकल कर कार्य करना शुरू किया, इससे महिलाओें के लिए मानी जाने वाली विशिष्ट भूमिकाएं भी बदलने लगी। साथ ही बढ़ती हुई जनसंख्या, गतिशीलता, शिक्षा, प्रौद्योगिकी ने महिलाओं के लिए नई चुनौतियां, जिम्मेदारियां, नवीन भूमिकाएं भी तैयार की, तब महिलाएं पारंपरिक भूमिकाओं से बाहर निकल कर नवीन जिम्मेदारियों के साथ आगे बढ़ने लगी, लेकिन आज भी उनके सामने अस्मिता का संकट है।
मुख्य शब्दः परम्परा एवं संस्कृति ।